अस्तित्व समर
हर तन-मन में निहित वही पंच-तत्व,
फिर भी भिन्न-भिन्न हैं सब व्यक्तित्व।
विभिन्नता में एकता है, भारत की विशेषता।।
किन्तु फिर भी है लड़ता,
क्यों किस हेतु नहीं पता।
हर कोई बचाने निज अस्तित्व,
खड़ा एक दूसरे के विरुद्ध व्यक्तित्व।
मिटाने दूसरे का अस्तित्व,
सब जुटा रहे हैं कथित तत्व।
कोई अपनी कुर्सी बचाने को,
तो कुछ नेता पार्टी बचाने को।
पुरुष समाज में साख बचाने को,
तो नारी अपनी गृहस्थी बचाने को।
पुरुष स्वाभिमान से जियें खातिर अस्तित्व के,
पर नारी तो कर्म करे भुला निज अस्तित्व ये।
वह रखे सबसे ऊपर पति, बच्चा एवं परिवार।
यद्यपि दोनों हैं बराबर भागीदार और जिम्मेदार।
फ़िर क्यों है समाज में यह अस्तित्व का द्वंद्व,
क्यों नहीं दिखता है फिर वहां मधुर आनंद।
साथ चलें दोनों घुल मिल कर,
जैसे चाय में दूध और शक्कर।
जैसे दोनों ही हैं चाय में विद्यमान,
ऐसे मिल जाएं छोड़ निज अभिमान।
एक दूसरे के अस्तित्व को आदर,
साथ साथ देकर और पाकर।
फिर न हो कोई भी अस्तित्व समर,
सुन्दर,सुमधुर,सुगम हो जीवन डगर।