बचपन के दिन
ठण्डी हवा का झोंका, छू कर गया यूँ मुझको।
जैसे सिर पर हाथ रख माँ ने पुचकारा मुझको।।
क्यो लगती है तू कुछ खोई-खोई सी मुझको।
शीघ्र बता तू मुझे क्या हो गया प्रिय तुझको।।
वे बचपन की यादें, वह प्यारे दोस्तों का साथ।
खेलते थे हम बच्चे सब, हिलमिल कर साथ।।
न कोई थी लड़की तब, न सोचा कौन लड़का।
कोई नहीं था भेदभाव,जाति धर्म या लिंग का।।
बड़े होने पर माँ की सीख तथा संस्कार पिता के थे।
तब सुना न था आतंक और न ही आतंकवादी थे।।
शहर की गलियां,बाजार हो कॉलेज अथवा पार्क।
न अपमान का डर था, न ही इज्ज़त जाने का आर्त।
माता पिता और भाईयों के साथ सब थे सुरक्षित।
समाज का न भय था कोई, हम सब थे पूर्ण रक्षित।।
त्योहारों का आनंद था, वह सावन में झूलाझूलन।
जन्माष्टमी पर देर रात तक, मंदिरों में झाँकी दर्शन।
दशहरा दिवाली पर दोस्तों के साथ मिलना मिलाना।
होली के रंगों में खूब छक कर खेलना,खाना-खिलाना।।
कहाँ खो गये वे होली के रंग और वे बच्चों की टोलियाँ।
हम जैसी इस समाज में आज, नहीं हैं सुरक्षित बेटियाँ।।