भाभी
भाभी भावनाओं का भंडार, ऐसा है यह प्यारा शब्द। भाभी -शब्द सुनते ही मन मस्तिष्क में जीवंत हो जाती है एक प्यारी स्त्री की छवि।
हर समय कार्य में व्यस्त सबकी प्यारी भाभी जिसे न ही अपने रूप की परवाह न वस्त्रों की, उसको तो बस एक ही लगन कि उसके
परिवार का हर सदस्य संतुष्ट एवं प्रसन्न रहे। सबको समय पर कलेवा, नाश्ता, चाय, दूध और दोनों वक्त का भोजन-पानी मिल जाये।
न ही कोई घर में असंतुष्ट हो और न ही कोई अतिथि भूखा घर से जाये। मेहमान हों या पड़ोसी सबकी प्यारी थीं भाभी ध्यान जो सबका
रखतीं थीं इतना।
भाभी जो बिन माँ के बच्चों की बन कर तो आयी थीं भाभी पर बन गयी थीं जैसे माँ। वे देवर-नन्दों के साथ ऐसे घुलमिल गयी थी कि
पाँच वर्षीया छोटी नन्द को अपनी बेटी समझ कर पालने लगी थीं। कुछ वर्षों बाद स्वयं भी माँ बनी तो घर में खुशियों का ठिकाना नहीं था।
ससुर जी भी बहुत प्रसन्न और निश्चिन्त रहते थे। पूरा घर भाभी की आवाज़ से ही गूँजता रहता था। कभी बडे देवर की आवाज़ आती, भाभी
मेरी पुस्तक ढूँढ कर देना, तो छोटे देवर की भाभी स्कूल यूनीफॉर्म देना और तभी छोटी नंद कहती, भाभी, मेरी चोटियां बना दो ना। हर समय
भाभी-भाभी सुनकर नन्हा शिशु भी माँ को भाभी बोलने लगा था।
समय के साथ भाभी एक बेटी और एक और बेटे की माँ बन गयीं लेकिन यह दुर्भाग्य था अथवा सौभाग्य कि उन्हें माँ कहने वाला कोई न था
क्योंकि दोनों बच्चे भी भाभी ही कहकर पुकारते थे। फिर जब तीसरा बच्चा हुआ तो वह भी माँ को भाभी ही पुकारता था। पता नहीं शायद
उनका कभी मन हुआ भी हो सुनने को वह प्यार भरा शब्द “माँ” ।
सब की प्यारी भाभी अब उनके बच्चों और पड़ोसियों की भी भाभी बन गयीं।
वे सबका ध्यान रखतीं पर उनका ध्यान कोई नहीं रखता था। पति प्रेम करते थे परन्तु गृहस्थी के चक्कर में उन दोनों को कम ही समय मिलता
था एक दूसरे के साथ बिताने को।
बस एक विवाहित नन्द थी उनकी हमउम्र जो कभी मायके आती तो भाभी की खुशी का ठिकाना न रहता दोनों
मिलकर अपनी परिवार की सुख दुख की खूब बातें करतीं और हँसी मज़ाक ठिठोली चलती रहती। परंतु ऐसे बहुत कम ही अवसर होते थे क्योंकि
नन्द भी अपने घर की पाँच ननदों की इकलौती छोटी भाभी थी।
नन्द देवरों की पढ़ाई और विवाह की जिम्मेदारी उठाने में ही भाभी लगी रहती थी।
जब अपने बच्चे बड़े हुए तो खर्चा बढ़ा औेर साथ ही महंगाई भी। देवर भी अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए। जिस भाभी ने अपने ज़ेवर बेचकर
घर के कार्य पूरे किये, उसे किसी ने नहीं पूछा समर्थ होने पर भी। स्वाभिमानी भाई भाभी ने भी कभी कोई माँग नहीं रखी और न अपनी तंगी को
जाहिर होने दिया। वे तो बच्चों समान भाई-बहिन की तरक्की से बहुत खुशी और गर्व का अनुभव करते थे।
भाभी स्वयं के लिए तो ठीक से कुछ कर नहीं पायी औेर अब पूरी ताकत से जुड़ गयी अपने बेटी और बेटों की पढ़ाई औेर फिर शादियों की
तैयारियों में। भाभी ने बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा सब कार्य संपन्न किए। पड़ोसी भी ‘शिशु की भाभी’ जी हाँ इसी संबोधन से पुकारा जाता
था उन्हें, की अत्यधिक प्रशंसा करते थे।
बेटी ससुराल में खुश थी लेकिन दूर होने से कम ही आ पाती थी भाभी को मिलने। बेटों के विवाह हुए
और कालान्तर में भाभी चार बच्चों की दादी बन गयीं जो उन्हें अम्मा बुलाने लगे। मूल से ब्याज अधिक प्यारी होती है यह सुना था किंतु भाभी
को देख कर जान लिया। बुढ़ापे में भी भाभी भाग भाग कर नन्हे बच्चों की जरूरतें पूरी करने का भरसक प्रयास करती रहती थी। किसी को मक्ख
न औेर छाछ से परांठे चाहिए तो किसी को हलवा पूरी और मठरियाँ।
परंतु पति की आकस्मिक बीमारी से टूट सी गयीं वे और पति के जाने के बाद तो जैसे खाने पीने, पहनने ओढ़ने का भी कुछ होश न रहा। वृद्धावस्था
में भाभी को धन की कुछ कमी नहीं थी किन्तु उसे खर्च करने का न ही मन था और न ही होश। अब तो जैसे जीवन के अंतिम वर्षों में वे बच्चा बन
गयी थीं लेकिन हाय अब भी भी उन्हें कोई माँ न कहता था हालांकि वे थीं अब भी बहुत ममतामयी।
और फिर एक दिन उन्हें हृदयाघात हुआ वे अस्पताल
गयीं तो वापस न लौटीं, लौटा तो उनका शरीर। सब बेटी-बेटे, देवर-नन्द, उन सबके बच्चे-बहुएं एकत्रित हुये, रोये और उनके गुणगान करते रहे। जीते
जी जिन्होने कभी पूछा न वे मरने पर शीघ्र आ गये।
कैसी है यह रीति जो किसी स्त्री के जीते-जी उसे उसके हक का प्यार और सम्मान न दिला सकी किन्तु मरणोपरांत दिला गयी। यही सोचती रह गयी मैं
और न ठीक से रो सकी और न ही उन्हें उचित प्रकार से अंतिम विदाई दे सकी।