हास्य कवि
प्रतियोगिता का थीम तो दिया था, एडमिन जी ने हास्य रस।
परंतु जल्दबाज़ी एवं खुशी में, हम ने उसे पढ़ लिया हाथरस।।
पढ़ते ही याद आयी हींग व सोनपापड़ी की मिठाई प्यारी सी।
साथ ही बचपन में पढ़ीं हास्य कविताएँ तथा काका हाथरसी।।
आगरा से अलीगढ़ आते-जाते बस से देखीं थीं गलियाँ इसकी।
क्योंकि इसके अतिरिक्त न था,वहाँ कोई नाता न ही रिश्तेदारी।।
अठारह को काकाजी की एक सौ चौदहवीं जयंती मनाई गई।
बहुत से प्रसिद्ध कवियों को निमन्त्रण पत्रिकाएं भिजवाई गईं।।
सोचा हम भी हैं राइजिंग स्टार,शायद हास्य कवि ही बन जाएं।
और अभी अभी एक हास्य कविता, ‘नशा ’ भी लिख पाये हैं।।
विधाओं,रसों का ज्ञान नहीं पर समझ खिलाड़ी कविता में।
किसी तरह हम भी पहुँच ही गए, उस विराट सम्मेलन में।।
जाकर वहां देखा श्री अशोक चक्रधर जी जैसे दिग्गजों को।
हमारे तो होश उड़ गये ,शीघ्र निकाली कविता दोहराने को।।
तभी एक पंखा चला और हम देखते रह गये उड़ते पन्नों को।
सोच रहे थे क्या करें,कैसे बटोरें इन्हें और सुनाएं कविता को।।
घबराहट में आया हुआ पसीना तो सूखा पर हमारे प्राण भी।
समझ नहीं पाये अब क्या करें,हमारा नाम पुकारा गया तभी।।
हाँ तो दर्शको स्वागत करिए नवोदित कवि,नहीं कवियित्री का।
अलीगढ़ में जन्मीं, महाराष्ट्र में रह रहीं सुषमा कुलश्रेष्ठ जी का।।
कांपते-लड़खड़ाते अग्रसर हुए हम मंच पर माइक सम्भालने को।
नये चेहरे को देख जिज्ञासु जनता भी थी,उत्सुक हमें सुनने को।।
हाथ में माइक को थाम कर जब, नजरें जो सामने हमने घुमायीं।
दिल धड़का,मुहँ में जम गया दही और याद हमारी नानी आयीं।।
हिम्मत करके हमने कविता शुरु की,तो फिर ज़बान लड़खड़ाई।
फ़िर क्या था,टमाटर-अंडों, जूते-चप्पलों की बौछारें थीं आयीं।।
हाय!अब तो हास्य कवि बनने का हमारा सपना धराशायी हुआ।
पर खुश थे टमाटर तो हैं मिले,कुछ सब्जी का इंतजाम तो हुआ।।
भ्रम टूटा,जब संयोजकों ने कहा, आपको भरना पड़ेगा हर्जाना।
कविता सुनकर,दर्शकों ने तोड़ीं कुर्सियां और फाड़ा शामियाना।।
उनका कहा हर शब्द हम पर, जैसे हथौड़ा सा पड़ रहा था।
तभी आँखें खुली हमारी, तो घड़ी का अलार्म बज रहा था।।
राम-राम अब न करेंगे जुर्रत कभी,हम हास्य कवि बनने की।
‘जिसका काम उसी को साजे’,न करेंगे कोशिश ये करने की।।