ख्वाब, हकीक़त और फ़साना
ज़िन्दगी कुछ ख्वाब लिये रहती बचपन से ही,
जब निंदिया रानी आकर पलकों पर ठहर गयी।
नानी-दादी से सुनी हुई कहानियों के जैसे ही,
स्वप्नों के राजकुमार की बात मन में रह गयी।
बचपन तो हवा के घोड़े पर जैसे सवार था ही,
कब आकर चल दिया और जवानी आ गयी।
बड़े हुये तो जाना ज़िन्दगी नहीं है कहानी सी,
घुड़सवार राजकुमार की बात सपना बन गयी।
समाज के लोगों ने विवाह को मुश्किल बनाया,
हकीक़त में ज़िन्दगी दहेज की बलि चढ़ गयी।
जी हाँ सब लोग नहीं होते हम जैसे भाग्यशाली,
जिनके सपनों की ज़िन्दगी हकीक़त बन गयी।
आज भी नहीं भूलतीं वे सखियाँ जो चली गयीं,
उनकी ज़िन्दगी एवं ख्वाब फ़साना जो बन गयी।