मातृ द्वादशी
नहीं भूल पाती एक पल भी जिन्हें।
कैसे चुकाऊं ऋण, क्या दूँ मैं उन्हें।।
एक माँ ने जन्म दे, दिखाई दुनिया।
दूजी ने जीवन संवारने वाला दिया।।
सोचती हूँ, श्राद्ध करूँ मैं किस तरह।
खाना खिलाती थी, मैं जिस तरह।।
क्या पंडितानी को ठीक है जिमाना।
या किसी भूखे को पेटभर खिलाना।।
क्या सूखा सीधा ही पण्डित को दे दूँ।
एवं कुछ पैसे कपडों के लिए भी दे दूँ।।
ऐसा करने से तृप्त होंगी आत्मा उनकी।
क्या सचमुच मिलेंगी,मुझे दुआएँ उनकी।।
या किसी वृद्धाश्रम में, आज मैं जाऊँ।
उनका पसंदीदा खाना,मैं उन्हें खिलाऊँ।
किसी की भीगी आंखों, सूखे होठों पर।
प्यारी सी एक मुस्कान,वापस मैं लाऊँ।।
लेकिन हाँ मिलेंगी दुआएँ-आशीष मुझे।
भूखे की तृप्ति होगी, क्षुधा जब इससे।।
जब किसी मजबूर या गरीब का भला हो।
ऐसा कोई कार्य, समाज में मुझसे भी हो।।
हम यदि चाहते हैं, आशीष बुजुर्गों का।
जीते जी ही रख सकें, मान हम उनका।।
न करें तिरस्कार, कभी माता-पिता का।
बुद्धि हमें दे प्रभु,करें हम सम्मान उनका।।
क्या पता कौनसा पल अंतिम हो मिलन का।
अतः सदा ही करें प्यार एवं रखें मान उनका।।