मेरा गाँव मेरा देश
याद आता है बचपन में छुट्टियों में वो गाँव को जाना।
जेठ की दुपहरी में खेत में तोड़ कर खरबूजा खाना।
कितना सुखद था प्रातः उठ कर मयूर नृत्य देखना,
सूर्योदय होते ही दूर-दूर तक फैली हरियाली देखना।
साँझ को पक्षियों का एक साथ घर को लौटते निहारना,
दोस्तों के साथ बाग में आमों को पेड़ से गिरा कर चखना।
पीपल के पेड़ पर पड़े झूले पर गीत गाते हुए वो झूलना,
सखियों के साथ पींगें बढ़ाते हुए वो स्वर का ऊँचा बढ़ना।
आज कहाँ मिल पाता हमारे बच्चों को यह प्रकृति सुख,
उनको तो सब कुछ तैयार मिल जाता है खोलते ही मुख।
वे वंचित ही रह गये इससे, सोच होता है मुझे थोड़ा दुःख,
क्या वे शायद कभी जुड़ पायेंगे अपनी मिट्टी से सचमुच?
कुंए पर रहट चलाते हुए बैलों की घंटियों का बजना,
जल का यूँ बहकर वहाँ से सब खेतों में स्वयं पहुँचना।
ज्ञानी थे हमारे वे बुजुर्ग जिन्होंने किये थे ये आविष्कार,
आज तो हम पढ़कर समझते स्वयं को बहुत जानकार।
आधुनिक तकनीकी ज्ञान वाले,विदेश में रह रहे बच्चों से।
पूछते हैं गाँव एवं महानगरों में रहने वाले हमारे जैसे लोग।
हम नहीं लौटे गाँव कभी तो क्या वे लौट पायेंगे अपने देश,
क्या कभी कर पायेंगे उस ज्ञान का अपने गाँवों में उपयोग?