नारी दर्पण
जब भी आईना देखती हूँ,याद आता वह बचपन।
सोचती हूँ क्या यह मैं हूँ, ऐसा तो न था यह दर्पण।
दिखती थी सबकी प्यारी एक छोटी गुड़िया सुन्दर,
रखती थी फूल सा निर्मल-कोमल तनमन हर क्षण।
खिलखिलाती,मुस्कराती,हँसती बोलती प्यारी वह।
धीरे-धीरे वह गुड़िया बड़ी सी दिखाने लगा दर्पण।
घर की प्यारी विद्यालय व समाज में भी छागयी ऐसे,
सब को दिखने लगा काम के प्रति उसका समर्पण।
कब बन गयी वह नारी, प्रेम ममता व त्याग की मूर्ति,
कर दिये उसने अपनी हँसी-खुशी,शौक-मौज अर्पण।
उसकी खिलखिलाहट की जगह गम्भीरता ने ले ली,
अनुभव की बारीक रेखा चेहरे पर दिखाने लगा दर्पण।
समाज में आए दिन होनी वाली अप्रिय घटनाओं से,
अप्रसन्न हो दिखाता है और भी रेखाएं,क्रोधित दर्पण।
सरलता के पीछे झाँक रही अनुभव-जन्य परिपक्वता,
परिवर्तन जीवन का नियम है सिखाता हमें यही दर्पण।
अब तो और अधिक बढ़ गयीं हैं जिम्मेदारियाँ उसकी,
कारण हैं घर,समाज और देश में हो रहे ये सब घर्षण।
बचाना टूटने से उसे घर,परिवार,देश,समाज व स्वयं को,
क्योंकि एक बार टूटने पर फिर नहीं जुड़ता यह दर्पण।