पंचतत्व
एक कुम्हार , ऐसा सुना है भाई,
जिसने यह संपूर्ण सृष्टि है बनाई।
फिर इस जग में चार चांद लगाने,
प्रसन्न हो वह मानव लगा बनाने।
धरती माँ से ले मिट्टी, बैठा लगा सोचने,
वरुण देव से नीर ले, लगा आकार देने।
पवन देव ने छुआ तो लगा रूप निखरने,
अग्निदेव आकर कच्ची माटी लगे पकाने।
आकाश सोचे अभी यह लगे जीवित होने,
प्राण फूँको भगवन! तो यह उड़े मुझे छूने।
पंचतत्व से निर्मित काया को साकार किया,
मानव तन यह दे प्रभु ने हमें कृतज्ञ किया।
कुछ तो लाज रखो उस पावन कुम्हार की,
जिसने यह हमको प्यारी सी ज़िन्दगी है दी।
पता नहीं कब यह काया माटी में मिल जाये,
कुछ पुण्य कमा ले,जग में फिर आये न आए।
ईश्वर सोचे- तुम सब हो मेरी सर्वोत्तम रचना,
झूठ, फरेब व भ्रष्टाचार से तुमको है बचना।
पंचतत्व सम्मिलित हैं तुम सब की काया में,
सत्कर्मों को करने भेजा मैं ने तुमको जग में।
मेरी सबसे प्रिय कृति है, मान मेरा रखना तू,
दुनिया में पुण्य कर्म करते रहना सदा ही तू।
अंत में मुझसे मिलने आना तू रहना चोखा,
श्री चित्रगुप्त जी लिखते, तेरा लेखा जोखा।