पितृ स्मृति
अश्रु आँखों में आकर, अटक- टपक जाते हैं।
छिपाऊं कितना भी,ये भाव छलक ही आते हैं।।
परम प्रिय परिवारी अपने,क्यों स्वर्गीय हो जाते हैं?
रोता बहुत यह दिल मेरा, जब याद बहुत आते हैं।।
ठण्डी हवा का झोंका,छू कर जाता कुछ यूँ मुझको।
पिता ने सिर पर कर धर,आशीष दिया हो मुझको।
जीवन भर जो देते रहे, मुझे प्यार-दुलार बेहिसाब।
कभी भी नहीं होने दिया,किसी कमी का अहसास।।
लगे रहे जीवन भर जुटाने को हमारी ही फरमाइशें।
वक्त भी करता रहा उनके,धैर्य की कुछ अजमाइशें।।
हम बच्चों को तो हक़ था, करने की खूब नादानी।
उन्होंने सब दिया,जैसे हम हों,राजकुमारी या रानी।।
जब याद आये पिताजी, होती बहुत खुशी पर कष्ट भी।
नहीं हो सकते, किसी जन्म में उनके उऋण कभी भी।।
सोचती हूँ, खुशी के अलावा,हमने भी कुछ दिया होता।
काश! उनके रहते,कभी उनको कुछ तो हमने दिया होता।।
उनसे सदैव लिया ही मैंने,यह जीवन व यह नैन नक्श।
आचार-विचार,संस्कार-भाषा, हूँ उनका ही मैं अक्स।।
सीखा मैं ने पिता से ही,वह प्रातःवंदन व रामायण पाठ।
परिवार में बिना अपेक्षा किए, खुश रहना सबके साथ।।
कहाँ चले जाते हैं माता-पिता, न जाती जहाँ चिट्ठिया?
नहीं सोचते, कौन कहेगा,गुड़िया रानी-बबली बिटिया?
हाय! अब कौन लुटाएगा, वात्सल्य का भंडार हम पर?
अब तो घर भी अपना, क्यों बन जाता है मायका भर?
इन शब्दों में, दिल के कुछ भावों को तो पिरो मैं सकी।
विज्ञान की छात्रा, हिन्दी साहित्य अधिक न पढ़ सकी।।
पिताजी ने श्री चित्रगुप्त जी की, काव्य-कथा रची थी।
शायद उनकी कला,एक प्रतिशत तो विरासत मिली थी।।