प्रकृति बनी दुल्हन
प्रकृति लेकर आयी है,यह चादर-हरियाली।
यह सजी-दुल्हन,आ देख ज़रा बाहर आली।
चारों तरफ जहाँ तक, दृष्टि है जाती डाली।
प्रत्येक पुष्प-पल्लव,प्रफुल्लित डालीडाली।
पर्वत पहाडियों पर पसरे,पचासों हैं रंग हरे।
हैं हिस्से सब, इस वसुधा के हरितिमा भरे।।
पृथ्वी पर पेड़ और पौधे सब, हुए हैं हरे-भरे।
आओ अपनी अश्रुति आँखों में यह हँसी भरें।
अम्बर आच्छादित मेघों से हुआ काला-नीला।
घनघोर घटाएँ घन-घन कर करतीं कुछ लीला।।
धरती पर धरते पग जब भी, है सब कुछ गीला।
सूर्य सुप्त सा दिखते ही,खिले सूर्यमुखी पीला।।
सिंदूरी सूर्य सुशोभित संध्या-शोभा को क्या बोलें।
उस पार कहीं मेरे ईश्वर, शायद कोई बत्ती खोलें।।
पंछी भी लौट रहे घर को,चहक-चहक कर बोलें।
आओ हम सब भेद मिटाके,अपने अंतर्मन खोलें।।
अवनी अम्बर का मधुर मिलन, करता है हर्षित।
वातावरण भी यहाँ नहीं,अब रहा है कुछ दूषित।।
अपनी करनी पर नहीं ग्लानि, अब हैं हम गर्वित।
सदा करें उस सृष्टा को,अपने कर्मों से गौरवांवित।।