सन्देश
काली घटा और हरित धरा लाया यह वर्षा का मौसम।
परंतु एक ही विषाणु ने किया तमाम यह प्यारा मौसम।
कल रात कुछ ऐसे उमड़-घुमड़ के आकर बादल बरसे।
हम सब तो झूम उठे साथ ही पक्षियों के भी मन हरसे।
पर यह क्या,नहीं सह सकी पीपल की वह शाखा नवल।
सुन्दर घरौंदा बनाकर बैठा था जिस पर एक पक्षी युगल।
अचानक गिरा वह जोड़ा नीचे धड़ाम से और गया दहल।
दृष्टि घुमाकर देखा चहुँ ओर धरती पर था जल ही जल।।
चिड़िया और चिरोंटा दोनों ही एक दम से रह गये स्तब्ध।
एक पल में घर से बेघर हुए अतः दोनों थे शांत-निःशब्द।
बहुत देर तक सोचते रहे वे कि ऐसा तो नहीं था प्रारब्ध।
सुबह की प्रतीक्षा में गुजारी रात बिना बोले एक भी शब्द।
सोच रहे थे वे दोनों दिन निकलेगा ही य़ह रात बीतने पर।
शायद कुछ तो बेहतर होगा जीवन प्रातः सूर्योदय होने पर।
भोर होते ही दोनों ने कहा एक दूसरे से हम नहीं हैं मानव।
जो करें अपेक्षा किसी से हमें तो स्वयं ही बनाना है घर नव।
प्रसन्न थे वे देखकर नये सूर्य को निकलते हुए आसमान में।
बस फिर क्या था उड़ान भरी पूरे जोश से नीले आकाश में।
अब न था कोई विषाद शेष बीते हुए कल का उनके मन में।
अब था केवल एक सपना नये जीवन के सुखों का मन में।
काश सीख सकते हम गया उसे भुलाकर नये सपने बोना।
जो छूट गया उसके दुःख में न जीकर बचे हुए को संजोना।
अपने बचे पल समेट के किसी के दुःख में पलकें भिगोना।
उसको भी देकर कुछ खुशियाँ फिर से सुखों को पिरोना।
क्या नहीं उतनी भी शक्ति है हम में जो कि है उन परिंदों में।
क्या नहीं अब शेष है विश्वास प्रेम, सद्गुण व भाई चारों में।
क्या हैं वे खुशियाँ हमारे सुख-सुविधाओं से सज्जित घरों में।
चहचहाहट/खिलखिलाहट है दाना पानी से वंचित घरौंदों में।