व्यथा विधुर की
दिल की खाली दीवारों पर, कैसे मैं रंग भर दूँ।
मेरे सूने ज़ज्बातों को, मैं फ़िर कैसे अब रंग दूँ।।
है कुछ अजीब सी ही,अब मेरी यह मनःस्थिति।
दुर्भाग्य से आयी,मेरे जीवन में ऐसी परिस्थिति।।
तुम थीं तो सब कुछ, सचमुच ही मुमकिन था।
तुम चली गयीं तो, तब से फिरता मैं हैरान सा।।
शायद तुम लौटोगी, मैं य़ह भी नहीं कह सका।
घर में खामोशी छाई है,दिल भी है मेरा थमा सा।।
न रोक सका कैसे भी, तुम चलती बनी कुछ यूँ।
मेरे दिल की धड़कन, रुक - रुक कर कहती यूँ।।
आजाओ तुम आजाओ,बस छम-छम करती सी।
दिन मेरे सूने-सूने हैं, रातें भी हैं बस वीरानी सी।।
कभी इधर कभी उधर, मैं फिरता हूँ मारा-मारा सा।
हर तरफ खोजता तुम्हें,फिर रहा मैं इक पागल सा।।
विश्वास नहीं यह कर पाता, तुम चली गयीं वहाँ पर।
हो लौट नहीं सकतीं जहाँ से, उस भगवान के घर।।
कैसे बच्चों को समझाऊं, समझ न मैं खुद पाता हूँ।
हर आहट पर लगता, आ गईं, पर कुछ न पाता हूँ।।
हे ईश्वर शक्ति मुझे देना,सहने की दुःख जो आ घेरे।
मुझको इतनी बुद्धि देना,कर सकूँ कार्य अपने पूरे।।